हजारों वर्ष से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में विश्वास-अंधविश्वास बन गए हैं या कि उनमें कोई विज्ञान छुपा है? ये विश्वास शास्त्रसम्मत है या कि परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किए गए हैं? सवाल कई है जिसके जवाब ढूंढ़ने का प्रयास कम ही लोग करते हैं और जो नहीं करते हैं वे किसी भी विश्वास को अंधभक्त बनकर माने चले जाते हैं और कोई भी यह हिम्मत नहीं करता है कि ये मान्यताएं या परंपराएं तोड़ दी जाएं या इनके खिलाफ कोई कदम उठाए जाएं।
जादू-टोना, तंत्र-मंत्र :
क्या जादू टोना करना या मंत्र-तंत्र द्वारा अपने स्वार्थ सिद्ध करना या दूसरों को नुकसान पहुंचाना हिन्दू धर्म का अंग है? शैव, शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में इस तरह का प्रचलन बहुत है। आजकल ज्योतिष भी तांत्रिक टोटके और उपाय बताने लगे हैं।
ग्रह-नक्षत्र पूजा, वशीकरण, सम्मोहन, मारण, ताबीज, स्तंभन, काला जादू आदि सभी का वैदिक मत अनुसार निषेध है। ये सभी तरह की विद्याएं स्थानीय परंपरा का हिंसा हैं। हालांकि अथर्ववेद में इस तरह की विद्या को यह कहकर दर्शाया गया है कि ऐसी विद्याएं भी समाज में प्रचलित हैं, जो कि वेद विरुद्ध हैं। अथर्ववेद का लक्ष्य है लोगों को सेहतमंद बनाए रखना, जीवन को सरल बनाना और ब्रह्मांड के रहस्य से अवगत कराना।
टोने-टोटके से व्यक्ति और समाज का अहित ही होता है और सामाजिक एकता टूटती है। ऐसे कर्म करने वाले लोगों को जाहिल समाज का माना जाता है।
छुआछूत :
अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिलकुल ही असत्य है। इस मुद्दे पर धर्म शास्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है।
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वे जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी होता रहा है।
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वे हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। आज जो नाम दिए गए हैं वे पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज हैं और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वे पिछले 900 सालों की गुलामी की उपज हैं।
पारंपरिक अंधविश्वास और टोटके :
ऐसे बहुत से अंधविश्वास हैं, जो लोक परंपरा से आते हैं जिनके पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। ये शोध का विषय भी हो सकते हैं। इसमें से बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो धर्म का हिस्सा हैं और बहुत-सी बातें नहीं हैं। हालांकि इनमें से कुछ के जवाब हमारे पास नहीं है। उदारणार्थ-
* आप बिल्ली के रास्ता काटने पर क्यों रुक जाते हैं? * जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे तो आप क्यों चिढ़ जाते हैं? * किसी दिन विशेष को बाल कटवाने या दाढ़ी बनवाने से परहेज क्यों करते हैं? * क्या आपको लगता है कि घर या अपने अनुष्ठान के बाहर नींबू-मिर्च लगाने से बुरी नजर से बचाव होगा? * कोई छींक दे तो आप अपना जाना रोक क्यों देते हैं? * क्या किसी की छींक को अपने कार्य के लिए अशुभ मानते हैं? * घर से बाहर निकलते वक्त अपना दायां पैर ही पहले क्यों बाहर निकालते हैं? * जूते-चप्पल उल्टे हो जाए तो आप मानते हैं कि किसी से लड़ाई-झगड़ा हो सकता है? * रात में किसी पेड़ के नीचे क्यों नहीं सोते? * रात में बैंगन, दही और खट्टे पदार्थ क्यों नहीं खाते? * रात में झाडू क्यों नहीं लगाते और झाड़ू को खड़ा क्यों नहीं रखते? * अंजुली से या खड़े होकर जल नहीं पीना चाहिए। * क्या बांस जलाने से वंश नष्ट होता है।
ऐसे ढेरों विश्वास और अंधविश्वास हैं जिनमें से कुछ का धर्म में उल्लेख मिलता है और उसका कारण भी लेकिन बहुत से ऐसे विश्वास हैं, जो लोक परंपरा और स्थानीय लोगों की मान्यताओं पर आधारित हैं।