हिन्दुस्तान में पैदा होने की सबसे बड़ी विडंबना ये है की हम बदलाव को रातोंरात चाहते है पर रातोंरात हुए बदलाव को गलत मानते हैं | ऐसा ही एक बदलाव पनप रहा था एक इंजीनियरिंग कॉलेज के एक हॉस्टल में | एक बंद कमरे में, किताब पर छपे हर एक अक्षर को पढ़ते हुए वो खुद को छू रहा था, भीतर-भीतर | किताब का नाम था :
'The complete works of Swami Vivekananda'
जिस लड़के के ने ये किताब उतारी खुद में, उसका रंग हमारे आप जैसा ही था | कोई विशेष ज्ञानी नहीं था वो पर इतना तो था की उसने इस किताब को चुना पढ़ने के लिए | तो ऐसा क्या जादू है इस किताब में जो इसे पढ़ के हर तीसरे दिन बीयर धकेलने वाला एक इंजीनियरिंग कॉलेज का लड़का रजस को चुनता है तमस के ऊपर ?
अरे हैं कौन ये विवेकानंद, जो 100 साल से हिन्दुस्तान को बदल रहे हैं ?
आज की तारीख में, भारत में हर रोज़ 42000 से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं | आज से कुछ 150 साल पहले ये आंकड़ा इतना नहीं था, पर फिर भी हजारों की भीड़ में पैदा होने वालों को कौन गिनता है | ऐसा ही हुआ कुछ 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में | विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के यहाँ एक बालक का जन्म हुआ | माँ-बाप ने बड़े जतन से नाम दिया नरेंद्र नाथ दत्त, पर नियति ने तो अपना स्वामी खोज लिया था | जब पूरा घर इस बालक को नरेंद्र बुला रहा था तब भविष्य में बैठे समय ने इन्हें पुचकार के विवेकानंद पुकारा |
पढ़ने में कैसे थे विवेकानंद ?
अक्सर जो बच्चे अपनी कक्षा में मास्टर साहब से ज्यादा सवाल पूछते है उन्हें या तो हम तेज़ समझने की भूल करते हैं या फिर दिखावेबाज समझ के दुत्कार देते हैं | पर यहीं हमसे गलती हो जाती है | गुड़ से घिरे हम चीनी को छोड़ देते हैं | नरेंद्र अपनी कक्षा के एकमात्र जिज्ञासु छात्र थे | जिस उम्र में बच्चे बाज़ार में बिक रही नान-खटाई के लिए मुहँ फुला लेते थे उस उम्र में नरेंद्र के तर्क उनके शिक्षकों के चेहरों की हवाइयाँ उड़ा देते थे |
होता है जब आदमी को अपना ज्ञान, कहलाया वो विवेकानंद :
अगर आपका जन्म 1990 के बाद हुआ है तो निश्चित तौर पर आप इस बोल से इत्तेफ़ाक रखते होंगे | जब उम्र वाला आँकड़ा सिर्फ इकाई में था तब ये बोल एंथम की तरह रटा हुआ था | कपाला और किलविष ने कभी इसका मतलब समझने की कोशिश ही नहीं करने दी | पर जब इंजीनियरिंग में इस लड़के को अकूत का समय मिला तो किताबों के निचोड़ को पीते हुए इसकी मुलाकात एक ऐसी किताब से हुई जिसने सब कुछ बदल दिया ; इल्म का दायरा, देखने का तरीका, बोलने का हुनर और सांस लेने की वजह |
इस सालों पुरानी किताब के आखिरी पन्ने को पढ़ते पढ़ते वो लड़का एकदम नया हो गया | और इसी के साथ उसने ये भी समझ लिया की सारी शक्ति ख़त्म होने के बाद शक्तिमान ध्यान मुद्रा में क्यों बैठता था ? क्योंकि सिर्फ ध्यान ही वो अवस्था है जहाँ आपकी भेंट अपने असल चेहरे से होती है | ये अंतर्मन की आवाज बहुत धीमी होती है आमतौर पर बाहर के शोर से दब जाती है और सुनाई नहीं देती इसीलिए ध्यान और प्रार्थना एक ऐसा जरिया है जो इस अन्दर की आवाज को amplify करके आपको झकझोरती है बदलने के लिये | इस आवाज को अगर हम सुनते तो आज भारत में सिर्फ एक विवेकानंद या बुद्ध नहीं होते |
क्या विवेकानंद को कभी गुस्सा नहीं आया ?
एक बार की बात है, जब विवेकानंद जी के हमउम्र बड़ी बड़ी universities से बड़ी बड़ी डिग्रीयां जुटा रहे थे तब विवेकानंद भारत भर में अपने गुरु रामकृष्ण द्वारा सीखाई बातों का प्रचार कर रहे थे | कोई आमदनी नहीं थी इसमें, लोग विवेकानंद को बेवकूफ का दर्जा देते थे | कहते थे जो बातें वेदों में नहीं हैं वो सही कैसे हो सकती हैं | इसी बीच विवेकानंद की माँ की तबियात बहुत बिगड़ गई | घर में पैसे के नाम पर कुछ नहीं था | विवेकानंद दवा भी नहीं खरीद पा रहे थे | थोड़ा बेबस महसूस हुआ उन्हें और बेबसी बाप होती है रोष की | वो गुस्से में उठते है और तिलमिलाए चले जाते है अपने गुरु रामकृष्ण के पास |
उन्होंने रामकृष्ण से कहा, ‘इन सारी फालतू चीजों, इस आध्यात्मिकता से मुझे क्या लाभ है | अगर मेरे पास कोई नौकरी होती और मैं अपनी उम्र के लोगों वाले काम करता तो आज मैं अपनी मां का ख्याल रख सकता था | मैं उसे भोजन दे सकता था, उसके लिए दवा ला सकता था, उसे आराम पहुंचा सकता था | इस आध्यात्मिकता से मुझे क्या फायदा हुआ?’
रामकृष्ण काली के उपासक थे | उनके घर में काली का मंदिर था | वह बोले, ‘क्या तुम्हारी मां को दवा और भोजन की जरूरत है? जो भी तुम्हें चाहिए, वह तुम मां से क्यों नहीं मांगते?’ विवेकानंद को यह सुझाव पसंद आया और वह मंदिर में गए |
एक घंटे बाद जब वह बाहर आए तो रामकृष्ण ने पूछा, ‘क्या तुमने मां से अपनी मां के लिए भोजन, पैसा और बाकी चीजें मांगीं?’
विवेकानंद ने जवाब दिया, ‘नहीं, मैं भूल गया |’ रामकृष्ण बोले, ‘फिर से अंदर जाओ और मांगो |’
विवेकानंद फिर से मंदिर में गए और और चार घंटे बाद वापस लौटे | रामकृष्ण ने उनसे पूछा, ‘क्या तुमने मां से मांगा?’ विवेकानंद बोले, ‘नहीं, मैं भूल गया |’
रामकृष्ण फिर से बोले, ‘फिर अंदर जाओ और इस बार मांगना मत भूलना |’ विवेकानंद अंदर गए और लगभग आठ घंटे बाद बाहर आए | रामकृष्ण ने फिर से उनसे पूछा, ‘क्या तुमने मां से वे चीजें मांगीं?’
विवेकानंद बोले, ‘नहीं, अब मैं नहीं मांगूंगा | मुझे मांगने की जरूरत नहीं है |’
रामकृष्ण ने जवाब दिया, ‘यह अच्छी बात है | अगर आज तुमने मंदिर में कुछ मांग लिया होता, तो यह तुम्हारे और मेरे रिश्ते का आखिरी दिन होता | मैं तुम्हारा चेहरा फिर कभी नहीं देखता क्योंकि कुछ मांगने वाला मूर्ख यह नहीं जानता कि जीवन क्या है ? मांगने वाला मूर्ख जीवन के मूल सिद्धांतों को नहीं समझता |’
तो ये प्रार्थना है क्या ? फुटबॉल का खेल ?
प्रार्थना एक तरह का गुण है और गुण बाँटने से बढ़ता है | हम यहीं चूक कर देते है | हम बाँटने के लिए प्रार्थना नहीं करते, हम तो बस डर घटाने के लिये मालायें फेरते हैं और सोचते हैं की हो गयी आज की प्रार्थना | जिस प्रार्थना की बात विवेकानंद करते हैं वो दरअसल एक खेल की तरह है , जैसे की फुटबॉल |
जैसे आप खेलते वक़्त एक ऐसे टाइम जोन में आ जाते हो जब आपके लिए उस खेल में अपनी भागीदारी ही सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है, वो टाइम जोन आपकी प्रार्थना है | आप बस ये उद्देश्य बना के खेलते हो की आप इस खेल में अपनी भागीदारी सबसे ज्यादा रखोगे बिना ये सोचे की आप जीतोगे या नहीं |
हिन्दुस्तान को कभी दूसरा विवेकानंद क्यों नहीं मिला ?
विवेकानंद जी ने एक बार अपने सम्बोधन में कहा था की "आप मुझे पूरी तरह से समर्पित मात्र 100 लोग दें और मै भारत को पूरी तरह से बदल दूंगा" | उस वक़्त भारत की जनसँख्या 23 करोड़ थी पर उनमे से मात्र 100 लोग भी नहीं मिले |
एक इंसान के पास इतनी जबर्दस्त दूरदर्शिता थी और उसकी दूरदर्शिता के कारण बहुत सी चीजें हुईं | आज भी, उनके नाम पर मानव कल्याण के बहुत से काम हो रहे हैं | उनकी दूरदर्शिता के कारण काफी विकास हुआ | उस समय जो बाकी लोग थे, वे कहां हैं? मगर उनकी दृष्टि अब भी किसी न किसी रूप में काम कर रही है | उसकी वजह से काफी खुशहाली आई | अगर हजारों लोगों में यही दूरदर्शिता होती, तो हालात और भी बेहतर होते | एक गौतम बुद्ध या एक विवेकानंद की दूरदर्शिता काफी नहीं है | जब अधिकांश लोगों में वह दूरदर्शिता होती है, तभी समाज में वाकई खूबसूरत चीजें होंगी |