जब- जब पृथ्वी पर धर्म का नाश होता है अधर्म बढ़ता है, मानवता को खतरा होता है। तब-तब पृथ्वी के पालक भगवान विष्णु किसी न किसी रुप में नये अवतार ( जन्म ) लेकर संसार एवं मानवता की रक्षा करते हैं। इन अवतारों में विश्व के विकास का रहस्य छिपा प्रतीत होता है।
सागर मन्थन का पौराणिक आख्यान जगत के उस विकास का सूचक है जब जल से भूमि का उदय हो रहा था। जल से भूमि के इस उदय होने में सृष्टि के विकास का तृतीय सोपन छिपा हुआ है , जो वाराह अवतार ने सम्पन्न किया है । इसी प्रकार नरसिंह अवतार में मानव और पशु जाति के विकास की कहानी पढ़ी जा सकती है। इन चारो अवतारों की परिकल्पना जिस युग में की गई है उसे सत्युग के नाम से जाना जाता है । इस युग में विकास के साथ -साथ सभी सकारात्मक विकास का क्रम रहा है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ब्रह्मा ने मत्स्य तथा वाराह का अवतार लेकर सृष्टि का हित किया है।
महावराह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसे आदि वाराह, आदि शूकर तथा क्रोड आदि नामों से भी जाना जाता है। मत्स्य एवं कूर्म अवतारों की तरह प्रारम्भ में वाराह अवतार का सम्बन्ध ब्रहमा प्रजापति से था , किन्तु बाद में ब्रहमा का महत्व कम हुआ और विष्णु प्रधान देवता स्वीकार किये जाने लगे। इसलिए मत्स्य और कूर्म अवतारों को विष्णु का अवतार माना जाने लगा।जल के अथाह गर्भ में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर लाकर जल स्तर पर एक नौका की भांति उसे स्थिर रुप में स्थापित करने का श्रेय यज्ञवाराह को है। इसे सम्पूर्ण यज्ञ का मूर्तिमान स्वरुप माना गया है। इसमें उनके हाथों में कोई अस्त्र षस्त्र नहीं होता है। नृ-वाराह के रुप में विष्णु ने शंख, चक्र और गदा आदि षस्त्र लेकर दैत्यराज हिरण्याक्ष का बध किया था।
रामायण में पृथ्वी को उठाने वाला वाराह रुप ब्रहमा का माना गया है। महाभारत में कहा गया है कि संसार का हित करने के लिए विष्णु ने वाराह रुप धारणकर हिरणाक्ष का बध किया। रसातल में ध्ंासी हुई पृथ्वी का पुनः उद्धार करने के लिए वे इस रुप में अवतरित हुए। वर्तमान समय में वाराह ही क्या प्रायः सभी देवी दवताओं का व्यापक अध्ययन एवं अनुसंधान हुआ है। इस कल्याणकारी वाराह के स्वरूप का सादर अभिनंदन किया जाता है।
किस प्रकार लिये है भगवान विष्णु ने अवतार :
प्रथम चार अवतारों में जगत की रचना की सूचना निहित है । सृष्टि के आरम्भ में सर्वत्र जल ही जल था अतः जगत के विकास में मत्स्य ही प्रथम जीव अथवा जन्तु था जिसने प्राणियों के रचना का प्रतिनिधित्व किया। मत्स्यावतार सृष्टि के इसी विकास का प्रतीक है। जल के बाद पर्वतों का उदय प्रारम्भ हुआ जिसका प्रतीक कुर्म है। पर्वतीय प्रदेश को कुर्म स्थान कहा जाता है। अतः सृष्टि के विकास का यह द्वितीय सोपान कूर्मावतार में निहित है।सागर मन्थन का पौराणिक आख्यान जगत के उस विकास का सूचक है जब जल से भूमि का उदय हो रहा था। जल से भूमि के इस उदय होने में सृष्टि के विकास का तृतीय सोपन छिपा हुआ है , जो वाराह अवतार ने सम्पन्न किया है । इसी प्रकार नरसिंह अवतार में मानव और पशु जाति के विकास की कहानी पढ़ी जा सकती है। इन चारो अवतारों की परिकल्पना जिस युग में की गई है उसे सत्युग के नाम से जाना जाता है । इस युग में विकास के साथ -साथ सभी सकारात्मक विकास का क्रम रहा है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ब्रह्मा ने मत्स्य तथा वाराह का अवतार लेकर सृष्टि का हित किया है।