कल प्रभु वल्लभाचार्यजी की जयंती है। कौन है ये वल्लभाचार्य जी ? सुना है इन्हें अग्निदेव का अवतार माना जाता था। कब हुआ था इनका जन्म और कैसा बीता था इनका बचपन ? हो सकता इन तमाम सवालों के जवाब हममे से किसी के पास ना हो इसीलिए हम आज का ये विशेषांक लेकर आये हैं आपके लिये। जहाँ आप जानेंगे की कौन थे वल्लभाचार्य जी। तो आइये पढ़ते है वल्लभाचार्य जी के बारे में ये बातें।
वल्लभाचार्य जी को अग्निदेव का अवतार माना जाता था। इनका जन्म तब हुआ जब भारतीय संस्कृति पर चारों तरफ से विधर्मियों द्वारा आक्रमण हो रहे थे। समाज में सर्वत्र निराशा थी। परस्पर संघर्ष, अविश्वास, भगवान के प्रति अनास्था और अशान्ति फैली हुई थी। ऐसे समय में प्रभु वल्लभाचार्यजी ने सनातनधर्मियों को पुन: भगवत्सेवा और प्रभु स्मरण का उपदेश देकर अपने धर्म से जोड़ने का सफल प्रयास किया।
वल्लभाचार्य की शिक्षा पाँच वर्ष की अवस्था में प्रारंभ हुई। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई, त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। आगे चलकर वे विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक बने।
आचार्यचरण श्रीमद्वल्लभाचार्य जी ने पुष्टि मार्ग और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार करने के लिए भारतवर्ष की तीन परिक्रमाएं कीं। भारत भ्रमण करते हुए आपने चौरासी बैठकें स्थापित कीं और चौरासी वैष्णव बनाये। आपने श्रीगोवर्धन में रहकर श्री गिरिराजजी में मन्दिर बनवाया, उसमें सच्चिदानन्द प्रभु श्रीनाथजी की स्थापना की। स्वयं श्रीमहाप्रभुजी ने अपने जीवन में प्रभु श्रीकृष्ण चन्द्र के नाम का कभी भी विस्मरण नहीं किया।
पुष्टि सम्प्रदाय में श्रीमद्वल्लभाचार्यजी को साक्षात श्रीकृष्ण रूप प्रभु श्रीनाथ जी मुखावतार माना गया है। इसी कारण उनकी पवित्र पादुकाएं, जिन्हें धारण कर उन्होंने सम्पूर्ण भारत की परिक्रमाएं की थीं और श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया था, श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों में विराजमान हैं और उन्हें भगवत्स्वरूप मानकर उनकी नित्य सेवा की जाती है।