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10 मई को है बुद्ध पुर्णिमा जानिए इस दिन दान पुण्य करने के फायदे | Buddha Purnima on 10th of May



*यह आर्टिकल राखी सोनी द्वारा लिखा गया है। 


हर साल बैसाख की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में पूरे देशभर में मनाया जाता है। इस दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। हिन्दू शास्त्रों में भगवान बुद्ध को ईश्वर का रूप ही माना जाता है। वे भगवान विष्णु के नौंवे अवतार थे। उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ रखा गया था, लेकिन गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। शाक्यों के राजा शुद्धोधन उनके पिता थे।  सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी) ने किया।  वे बचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। जीव रक्षा के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे।

दान पुण्य का विशेष महत्व :

इस दिन जो भी व्यक्ति दान पुण्य करता है, उसे पापों से मुक्ति मिलती है। इस दिन सुबह स्नान आदि के बाद भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस दिन शक्कर और तिल का दान करना चाहिए। इससे पितृ कृपा बनी रहती है और घर में सभी सुख सुविधाओं का वास होता है। इस दिन गरीबों को भोजन करना चाहिए।

बोधिवृक्ष के दर्शन करते हैं हजारों लोग :


बोधगया में बोधिवृक्ष है। इस वृक्ष के नीचे बैठकर ही भगवान बुद्ध ने बोधि यानी प्राप्त किया था। इस दिन इस वृक्ष की विशेष पूजा अर्चना की जाती है। उनकी शाखाओं पर हार चढ़ाए जाते हैं। वृक्ष के आस-पास दीपक जलाए जाते हैं। इस दिन काफी संख्या में लोग यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।  वैसे इस वृक्ष के पीछे के रोचक कहानी भी है। ऐसा बताया जाता है कि  इस पवित्र वृक्ष को भी तीन बार नष्ट करने का प्रयास किया गया, लेकिन तीनों बार यह प्रयास विफल हुआ। जो पेड़ आज स्थापित है, वह अपनी पीढ़ी का चौथा पेड़ है।


बताया जाता है कि पहली बार ये कोशिश सम्राट अशोक की एक वैश्य रानी ने की थी। रानी तिष्यरक्षिता ने चोरी-छुपे कटवा दिया था।  मान्यताओं के अनुसार रानी का यह प्रयास विफल साबित हुआ और बोधिवृक्ष नष्ट नहीं हुआ, बल्कि कुछ ही सालों बाद बोधिवृक्ष की जड़ से एक नया वृक्ष उगकर खड़ा हो गया। उसे दूसरी पीढ़ी का वृक्ष माना जाता है, जो तकरीबन 800 सालों तक रहा। बताया जाता है कि सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेन्द्र और बेटी संघमित्रा को सबसे पहले बोधिवृक्ष की टहनियों को देकर श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने भेजा था। महेन्द्र और संघिमित्रा ने जो बोधिवृक्ष श्रीलंका के अनुराधापुरम में लगाया था वह आज भी मौजूद है।


दूसरी बार इस पेड़ को बंगाल के राजा शशांक ने जड़ से ही उखडऩे की कोशिश की थी, लेकिन वे इसमें असफल रहे। उन्होंने इस वृक्ष की जड़ों में आग लगवा दी थी, लेकिन जड़ें पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाईं। कुछ सालों बाद इसी जड़ से तीसरी पीढ़ी का बोधिवृक्ष निकला, जो तकरीबन 1250 साल तक मौजूद रहा.

तीसरी बार बोधिवृक्ष साल 1876 प्राकृतिक आपदा के चलते नष्ट हो गया। उस समय लार्ड कानिंघम ने 1880 में श्रीलंका के अनुराधापुरम से बोधिवृक्ष की शाखा मांगवाकर इसे बोधगया में फिर से स्थापित कराया, यह इस पीढ़ी का चौथा बोधिवृक्ष है, जो आज तक मौजूद है.



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