जब भी तीर्थस्थानों का नाम आता है, तो उसमें एक नाम केदारनाथ धाम का भी जरूर आता है। प्राकृतिक की खूबसूरत गोद में ये स्थान न सिर्फ भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है, बल्कि देसी-विदेशी सैलानी भी यहां हर साल काफी संख्या में आना पसंद करते हैं। चारों तरफ पहाड़ और बफीर्ली वादियां इस स्थान को ओर अधिक खूबसूरत बना देती है। केदारनाथ के पट अक्षय तृतीया से दीपावली तक ही खुले रहते हैं। अन्य दिनों में भक्त बाबा केदारनाथ के दर्शन का लाभ नहीं उठा पाते हैं। अन्य दिनों में ये स्थान पूरी तरह से बर्फ से ढंक जाता है। इसलिए श्रद्धालुओं को यहां आने की परमिशन नहीं होती है।
3583 मीटर की ऊंचाई पर बना है ये मंदिर :
केदारनाथ मंदिर करीब ३५९३ की ऊंचाई पर बना हुआ है। इतनी ऊंचाई पर मंदिर का निर्माण कैसा किया गया, ये भक्तों के लिए हमेशा से ही कोतूहल का विषय रहा है। ऐसा बताया जाता है कि लगभग एक हजार वर्षों तक यहां बाबा की पूजा-अर्चना की जा रही है। यहां आने वाले हर भक्त की मनोकामना बाबा जरूर पूरी करते हैं। छह महीने सर्दियों के दिनों में मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। उस समय भगवान केदारनाथ को गुप्तकाशी के निकट उखीमठ ले जाया जाता है। इस दौरान केदारनाथ में कोई नही रहता। मंदिर में एक ज्योत प्रज्वलित रहती है, जो छह महीने तक जलती रहती है। जबकि मंदिर में पूजा-पाठ के लिए कोई नही होता।
ये है कथा :
इस मंदिर का निर्माण कैसा हुआ, इसका उल्लेख हमारे शास्त्रों में किया गया है। बताया जाता है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या किया करते थे। उनकी आराधना से भोले बाबा प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे मनवांछित फल मांगने को कहा। भगवान शिव ने उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। तब से बाबा भोलेनाथ यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित है। इसके अलावा एक अन्य कथा भी है। कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव अपने भाइयों की हत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन भगवान शंकर उनसे नाराज थे।
बाबा भोलेनाथ को मनाने के लिए वे पांडव काशी गए, लेकिन वहां भी उन्हें शिव जी के दर्शन नहीं हुए। शिवजी को खोजते-खोजते वे हिमालय पर्वत तक पहुंच गए। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। जब पांडवों को ये बात पता चली तो वे बाबा को ढूढऩे के लिए केदारनाथ धाम पहुंच गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को इस बात पर संदेह हुआ है। तब भीम ने अपने पैर विशाल रूप धारण करके दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति से खुश हो गए और उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।
बाबा भोलेनाथ को मनाने के लिए वे पांडव काशी गए, लेकिन वहां भी उन्हें शिव जी के दर्शन नहीं हुए। शिवजी को खोजते-खोजते वे हिमालय पर्वत तक पहुंच गए। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। जब पांडवों को ये बात पता चली तो वे बाबा को ढूढऩे के लिए केदारनाथ धाम पहुंच गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को इस बात पर संदेह हुआ है। तब भीम ने अपने पैर विशाल रूप धारण करके दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति से खुश हो गए और उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।