Hinduism

राजा हरिश्चंद्र जिन्होंने अपने पुत्र के दाह के लिये पत्नी से माँगा था कर | Great Story of Lord Harishchandra



कहते हैं कि कलयुग में जिस चीज का सबसे कम प्रयोग किया जायेगा वो होगा सत्य। लोग सच बोलने से कतरायेंगे, बचते फिरेंगे और झूठ की ऊँगली थामे आसानी से बढ़ते रहेंगे। हो भी ऐसा ही रहा है। तो ऐसे माहौल में ये बात सोच पाना कि क्या कोई सत्यवादी भी होता होगा ? बहुत ही कठिन है। पर आज से कई वर्षों पूर्व एक राजा हुआ करते थे जिन्होंने सिर्फ सत्य की राह पर चलने के लिए अपना राज-पाठ छोड़ दिया। जी हाँ हम बात कर रहे हैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की। तो आइये आज हम आपको सुनाते हैं राजा हरिश्चंद्र की सत्यता की कहानी। 


सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र कथा :

एक समय की बात है। महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र में इस बात पर बहस हो रही थी की आज के समय में भी कोई इस धरती पर सत्यवादी बचा है या नहीं। 
विश्वामित्र ने वशिष्ट जी से कहा ‘ तुम्हारा कोई ऐसा शिष्य है जो सत्यवादी है ?’ 
वशिष्ठ बोले ‘ हा है वो हैं महाराज हरिश्चंद्र "
तब विश्वामित्र ने कहा "नही, ऐसा हो ही नहीं सकता और अगर हुआ भी तो भी हम उसका सत्य भ्रष्ट कर देंगे।" तब वशिष्ठ जी ने कहा "ऐसा है तो जाओ करके दिखाओ" 


आवेश में उठे विश्वामित्र वहाँ से चल दिए और हरिश्चंद्र से स्वप्न में उनका सर्वस्व राज-पाठ मांग लिया और हरिश्चंद्र ने उनको दे भी दिया, लेकिन जब सुबह हुई तो हरिश्चंद्र ने सोचा मैंने तो अपना सर्वस्व दान कर दिया लेकिन वो ऋषि कहाँ हैं और कौन हैं ? 
तभी विश्वामित्र जी वहाँ पँहुचे और बोले "मैं ही रात में तुम्हारे स्वपन में आया था। चलो अब अपना वचन पूरा करो, तब राजा ने कहा महराज सब कुछ आपका ही है आप ले लें। 

दान के बाद मांगी दक्षिणा :

फिर विश्वामित्र जी ने कहा "दान के बाद दक्षिणा भी होती है वो लाओ"
तब राजा हरिश्चंद्र ने नौकर से कहा कि महराज को दक्षिणा दो। तब ऋषि  ने कहा जब राज्य मेरा तो तुम इससे मुझे दक्षिणा कैसे दे सकते हो? चले जाओ बाहर अपना शरीर बेचकर मेरे लिए दक्षिणा लाओ। 
राजा अपने पुत्र रोहित और पत्नी शैव्या के साथ राज्य से बाहर चले गए। बाहर मरघट के पास आकर राजा ने एक डोम के यहाँ अपने आपको बेच दिया। पर विश्वामित्र की उतने से भी बात नहीं बनी और उन्होंने हरिश्चंद्र से कहा कि "और दक्षिणा लाओ"


इसपर हरिश्चंद्र अपनी पत्नी को भी एक ब्राह्मण के यहाँ बेच देते हैं। ब्राह्मण बहुत क्रूरतापूर्वक उसकी पत्नी को वहाँ से ले जाते हैं, उसका बेटा भी पत्नीं के साथ ही जाता है। विश्वामित्र स्वयं उस ब्राह्मण के रूप में हैं। ब्राह्मण सुबह से शाम तक  शैव्या से खूब मेहनत का काम लेता है ताकि वो ऊब कर वहा से चली जाये। समय भी क्या अजीब खेल खेलता है। जिस महारानी के एक काम करने के लिए 10-10 नौकर चाकर हों वो आज एक ब्राह्मण की दासी बन गयी है। लेकिन वो क्षत्रिणी भी अपने पति के दिए वचन को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। 

विश्वामित्र ने धर लिया सर्प का रूप :

ब्राम्हण सोचते हैं ये तो जाती ही नहीं क्या किया जाये फिर वो सर्प का रूप धर कर बाग़ में जाते हैं जहाँ उसका पुत्र रोहित खेल रहा होता है और उसको डस लेते हैं। वहाँ से  कोई उसकी माँ को खबर देता है की तुम्हारे पुत्र को सांप ने काट लिया है और उसकी मृत्यु हो गयी है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी ब्राह्मण उसे छुट्टी नहीं देता और कहता है कि "मर गया तो मर जाने दो तुम पहले अपना काम पूरा करो" 


वो बेचारी किसी तरह अपना काम पूरा करती है और भागे भागे बेटे के पास जाती है। पुत्र को इस तरह देख के माँ का कलेजा मुँह को आता है। महारानी होने के बाद भी आज उसके पास कोई साधन नहीं कोई धन नहीं जिससे वो अपने पुत्र का अंतिम संस्कार कर सके वो अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर कर उसी का कफ़न बनती है और उसी में लपेट कर अपने कलेजे के टुकड़े को श्मशान ले जाती है। 

अपने पुत्र के दाह के लिए हरिश्चंद्र मांगते हैं कर :

शैव्या श्मशान में उसी जगह पहुँचती है जहा उसका पति शव जलाता था। मुर्दे को देखकर वो अपना कर मांगता है। स्त्री रोती हुई कहती है मेरे पास धन नहीं है मैं गरीब हूँ , गुलाम हूँ अपनी साड़ी को फाड़कर तो कफ़न बना के लाई हूँ। मैं कहाँ से कर चुकाऊँगी। लेकिन फिर भी वो नहीं माना वो बोला मैं अपने कर्तव्य के अधीन हूँ बिना कर लिए मैं शव नहीं जलने दे सकता रात के अँधेरे में शायद हरिश्चंद्र अपनी पत्नी को नहीं पहचानता होगा, उसे ये भी नहीं पता की उसका पुत्र अब नही रहा शायद उसे ये पता चले तो उसकी कर्तव्यनिष्ठा ढीली पड़ जाये, तभी बिजली चमकती है दोनों पति-पत्नी एक दुसरे को देखते हैं।  


पत्नी देखते ही फूट-फूट कर रोने लगती है। महाराज ये आपका ही लड़का जिसके लिए मैं कफ़न तक नही ला पाई और बोलती है अब बताइए मैं आपको क्या कर दूँ। हरिश्चंद्र के आँखों से अश्रु धारा बह रही है लेकिन फिर भी वो कहता है मैं कुछ नही जानता। बिना कर दिए मैं शव नहीं जलाने दे सकता । तुम्हें कर देना ही होगा। फिर भी स्त्री रोती है। फिर भी हरिश्चंद्र नहीं मानता तो रानी अपनी बची हुई सारी को कर के रूप में देने लगती है की तभी आकाशवाणी होती है 

"धन्य हो हरिश्चंद्र धन्य हो" 

सारी शक्तियां प्रकट हो जाती हैं । सभी देवतागन आ जाते हैं वशिष्ठ और विश्वामित्र भी आते है और सारी बात बताते हैं। और बोलते हैं हम मान गए सम्पूर्ण विश्व में तुम ही सत्यवादी हो धन्य हो महाराज मैं तुम्हारा राज्य तुम्हें वापस करता हूँ।



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