*यह आर्टिकल राखी सोनी द्वारा लिखा गया है।
नेत्रों में समाई ज्योति नहीं बल्कि कृष्ण की सूरत :
श्रीकृष्ण, ये वो नाम है, जिनकी भक्ति में कई भक्तों ने अपना पूरा जीवन समपिर्त कर दिया। जब भी श्रीकृष्ण के परम भक्तों का नाम लिया जाता है, उसमें मीरा और सूरदास का नाम सबसे पहले आता है। सूरदास का नाम उन महान कवियों के रूप में आज भी लिया था, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण की भक्ति का समर्पित कर दिया। 1478 ई. में सूरदार का जन्म एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता रामदास भी गायक थे। जन्म से ही सूरदास अंधे थ। सूरदास ने मध्यकाल में वात्सल्य रस को आधार बनाकर कृष्ण की बाल लीलाओं का बहुत ही मनोहारी तथा अदभुत चित्रण किया था। कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण अपने साहित्यिक पदों में इतनी सूक्ष्मता से किया हैं कि इनके जन्मांध होने पर लोगों को विश्वास ही नहीं होता था।
वल्लभाचार्य को बनाया गुरु :
बताया जाता है कि बचपन में ही वे सगुन बताने वाली विद्या के ज्ञानी हो गए थे। इस वजह से उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई, लेकिन उन्हें तो कृष्ण की भक्ति करनी थी। इसलिए सूरदास वह स्थान छोड़कर यमुना के किनारे (आगरा और मथुरा के बीच) गऊघाट पर आकर रहने लगे। सूरदास गऊघाट पर अपने कई सेवकों के साथ रहते थे और वे सभी उन्हें स्वामी कहकर बुलाते थे। यहीं पर इनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। यहां पर ही वे संत श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आए और उनसे गुरु दीक्षा ली। वल्लभाचार्य ने ही उन्हें भागवत लीला का गुणगान करने की सलाह दी और उन्हें श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाए। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा, जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे। इसके बाद उन्हें श्रीकृष्ण का गुणगान शुरू कर दिया और जीवन में कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
३० अप्रैल को हैं जयंती :
सूरदास का जन्म कब हुआ, इसको लेकर भी ऋषि मुनियोंमें काफी मतभेद था। ऐसा बताया जाता है कि सूरदास जी उनके गुरु वल्लाभाचार्य जी से दस दिन छोटे थे। वल्लाभाचार्य जी की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी को मनाई जाती है। इसके गणना के अनुसार सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को माना जाता है। इस कारण प्रत्येक वर्ष सूरदास जी की जयंती इसी दिन मनाई जाती है। इस वर्ष ये जयंती ३० अप्रेल को मनाई जाएगी।
कुछ अन्य बातें :
सूरदास ने अपना पूरा जीवन श्रीनाथजी के मंदिर में कृष्ण भक्ति में ही निकाल दिया। बाद में जब सूरदास को अहसास हुआ कि भगवान अब उन्हें अपने साथ ले जाने की इच्छा रख रहे हैं, तो वे श्रीनाथजी में स्थित पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गए और उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। बताया जाता है कि अकबर भी सूरदास की रचनाओं से काफी प्रभावित हो गए थे और उन्होंने सूरदास से मुलाकात की।