*यह आर्टिकल राखी सोनी द्वारा लिखा गया है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। ये मंदिर उज्जैन में स्थित है। यहां आने से व्यक्ति की समस्त मनोकामना पूर्ण होती है और पापों से मुक्ति मिलती है। वैसे तो इस मंदिर में सालभर ही श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है, लेकिन कुंभ के मेले के समय भक्तों को यहां पैर रखने की जगह तक नहीं मिलती है।
ऐसा कहा जाता है कि वर्षों पहले श्मशान की भस्म से भगवान महाकाल की भस्म आरती होती थी लेकिन अब कंडे के बने भस्म से आरती की जाती है। शिवपुराण के लिए अनुसार भस्म तैयार करने के लिए कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर के वृक्ष की लकडिय़ों को एक साथ जलाया जाता है। इस दौरान उचित मंत्रोच्चार किए जाते हैं। इन चीजों को जलाने पर जो भस्म प्राप्त होती है, उसे कपड़े से छान लिया जाता है। इस प्रकार तैयार की गई भस्म शिवजी को अर्पित की जाती है। इस भस्म को यदि कोई इंसान भी धारण करता है तो उसके सभी दुख दूर हो जाते हैं, वे सभी मुरादें पूरी होती है।
वह अवंती नगरी में भी आया और सभी ब्राह्मणों को धर्म-कर्म छोड़ देने के लिए कहा, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी। तब उस ब्राहृाण ने शिव की आराधना शुरू कर दी। जहां वह सात्विक ब्राह्मण पार्थिव शिव की अर्चना किया करता था, उस स्थान पर एक विशाल गड्ढा हो गया और भगवान शिव अपने विराट स्वरूप में उसमें से प्रकट हुए। विकट रूप धारी भगवान शंकर ने दूषण व उसकी हिंसक सेना को भस्म कर दिया। इसके बाद भगवान महाकाल स्थिर रूप से वहीं विराजित हो गए और समूची अवंतिका नगरी शिवमय हो गई।
इसी के साथ एक अन्य कथा भी है। उज्जैन में राजा चंद्रसेन का राज हुआ करता था। वह भगवान शिव का भक्त था। शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय चिंतामणि प्रदान की। इस मणि का तेज इतना ज्यादा था कि चंद्रसेन की कीर्ति देश-दुनिया में बढऩे लगी। सभी राजा चाहते थे कि वे मणि पा ले। अंतत: उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रामण कर दिया। शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहां कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन के लिए आई। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा के लिए प्रेरित हुआ। बालक भी अपने घर में बैठकर शिवलिंग की पूजा करने लगा। कुछ समय बाद उसकी मां ने उसे खाने के लिए बुलाया, उसने अपनी मां की आवाज नहीं सुनी, मां को गुस्सा आया और उसने सभी पूजन सामग्री फेंक दी। जब बालक को होश आया तो वे काफी दुखी हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहां एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था। राजा चंद्रसेन भी उस बालक से मिलने गए। इसके बाद उस जगह महाकाल की पूजा अर्चना होने लगी। तभी वहां रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोपी-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। ये मंदिर उज्जैन में स्थित है। यहां आने से व्यक्ति की समस्त मनोकामना पूर्ण होती है और पापों से मुक्ति मिलती है। वैसे तो इस मंदिर में सालभर ही श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है, लेकिन कुंभ के मेले के समय भक्तों को यहां पैर रखने की जगह तक नहीं मिलती है।
भस्म से होती है आरती :
ऐसा कहा जाता है कि वर्षों पहले श्मशान की भस्म से भगवान महाकाल की भस्म आरती होती थी लेकिन अब कंडे के बने भस्म से आरती की जाती है। शिवपुराण के लिए अनुसार भस्म तैयार करने के लिए कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर के वृक्ष की लकडिय़ों को एक साथ जलाया जाता है। इस दौरान उचित मंत्रोच्चार किए जाते हैं। इन चीजों को जलाने पर जो भस्म प्राप्त होती है, उसे कपड़े से छान लिया जाता है। इस प्रकार तैयार की गई भस्म शिवजी को अर्पित की जाती है। इस भस्म को यदि कोई इंसान भी धारण करता है तो उसके सभी दुख दूर हो जाते हैं, वे सभी मुरादें पूरी होती है।
मंदिर का इतिहास :
ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी ने कथा का वर्णन किया है। कथा के अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण हुआ करता था। वह ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग निर्मित कर उनका प्रतिदिन पूजन किया करता था। उन दिनों एक राक्षस था, जिसका नाम दूषण था। इसे ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ था, इसलिए उसने समस्त तीर्थस्थलों पर धार्मिक कर्मों पर बाधित करना शुरू कर दिया।वह अवंती नगरी में भी आया और सभी ब्राह्मणों को धर्म-कर्म छोड़ देने के लिए कहा, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी। तब उस ब्राहृाण ने शिव की आराधना शुरू कर दी। जहां वह सात्विक ब्राह्मण पार्थिव शिव की अर्चना किया करता था, उस स्थान पर एक विशाल गड्ढा हो गया और भगवान शिव अपने विराट स्वरूप में उसमें से प्रकट हुए। विकट रूप धारी भगवान शंकर ने दूषण व उसकी हिंसक सेना को भस्म कर दिया। इसके बाद भगवान महाकाल स्थिर रूप से वहीं विराजित हो गए और समूची अवंतिका नगरी शिवमय हो गई।
इसी के साथ एक अन्य कथा भी है। उज्जैन में राजा चंद्रसेन का राज हुआ करता था। वह भगवान शिव का भक्त था। शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय चिंतामणि प्रदान की। इस मणि का तेज इतना ज्यादा था कि चंद्रसेन की कीर्ति देश-दुनिया में बढऩे लगी। सभी राजा चाहते थे कि वे मणि पा ले। अंतत: उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रामण कर दिया। शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहां कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन के लिए आई। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा के लिए प्रेरित हुआ। बालक भी अपने घर में बैठकर शिवलिंग की पूजा करने लगा। कुछ समय बाद उसकी मां ने उसे खाने के लिए बुलाया, उसने अपनी मां की आवाज नहीं सुनी, मां को गुस्सा आया और उसने सभी पूजन सामग्री फेंक दी। जब बालक को होश आया तो वे काफी दुखी हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहां एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था। राजा चंद्रसेन भी उस बालक से मिलने गए। इसके बाद उस जगह महाकाल की पूजा अर्चना होने लगी। तभी वहां रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोपी-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।