बोधप्राप्ति : एक लघु कथा
जब 29 वर्ष की आयु में राजकुमार सिद्धार्थ का मन सांसारिक मोह माया से विरक्त हो उठा तब उन्होंने अपने राज्य को छोड़कर जंगल में जाकर तपस्या करने की ठानी जिससे की वो दुनिया की इन सारी दुख और असुविधाओं के पीछे का कारण जान ले और फिर उसके निवारण को दुनिया में फैलाये |
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। 6 साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
फिर एक दिन नगर की कुछ स्त्रियाँ वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहे था। उन स्त्रीयों ने सिद्धार्थ की चुटकी लेते हुए एक गीत गया जिसका अर्थ था
‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ये बात सिद्धार्थ को ठनकी | वो मान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। तत्पश्चात वो कुछ आहार लेकर ही योग पर बैठते |
एक दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। पास के गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मन्नत मानी थी। वह मन्नत पूरी करने के लिए गाय के दूध की खीर लेकर वहाँ पहुँची जहाँ सिद्धार्थ बैठ कर ध्यान कर रहे थे |
सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए।