*यह आर्टिकल राखी सोनी द्वारा लिखा गया है।
हमारे शास्त्रों में भगवान शिव ऐसे देवता है, जो मनुष्य की थोड़ी सी भक्ति से ही प्रसन्न हो उठते हैं और मनचाहा वरदान देते हैं। प्रदोष व्रत ऐसा व्रत है, जो भोलेनाथ को अतिप्रिय है। इस व्रत को करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। यह व्रत हिंदू धर्म के सबसे शुभ व महत्वपूर्ण व्रतों में से एक माना गया है। प्रदोष व्रत कृष्ण और शुक्ल पक्ष के 13 वें दिन (त्रयोदशी) पर रखा जाता है। सूर्यास्त से सवा घण्टा पूर्व के समय को प्रदोष काल कहा गया है। इसलिए इस समय शिवजी की पूजा-अर्चना पूरी भक्ति भाव से करनी चाहिए।
ये व्रत अलग-अलग दिन आता है। हर वार का अपना महत्व होता है। प्रदोष व्रत अगर रविवार और मंगलवार को पड़ता है तो व्यक्ति हमेशा निरोगी रहता है और उसकी आयु भी लम्बी होती है। सोमवार व बुधवार को पडऩे वाले व्रत पर व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूर्ण होती है। गुरुवार के दिन प्रदोष व्रत करने से शत्रुओं का नाश होता है, शुक्रवार को व्रत करने से गृहस्थ जीवन में सुख समृद्धि बनी रहती है। मनचाही संतान की प्राप्ति के लिए शनिवार के दिन पडऩे वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए।
एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया, लेकिन राजकुमार धर्मगुप्त अंशुमती नाम की गंधर्व कन्या पर मोहित हो गया। कन्या ने राजकुमार केा अपने पिता से मिलवाया। उसका पिता राजकुमार को पहचान गया। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।
इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुन: आधिपत्य प्राप्त किया। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था। कहा जाता है कि जो भी इस कथा को पढ़ता है, उसके घर में कभी भी दरिद्रता का वास नही होता है।
शिव को प्रिय है प्रदोष व्रत, पूरी होती है हर मनोकामना :
कैलाश में महादेव करते हैं नृत्य :
हमारे शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत का महत्व इसलिए है, क्योंकि इस समय महादेव जी कैलाश पर्वत में नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। इसलिए इस समय जो भी मनुष्य पूरे नियमों से शिवजी की पूजा करता है, उसे सभी इच्छाएं पूर्ण होती है।ये मिलता है लाभ :
प्रदोष व्रत कथा :
प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र के साथ रहा करती थी। एक बार जब वे भिक्षा लेकर घर लौटी तो उसे उसे नदी किनारे एक सुन्दर बालक दिखाई दिया, जो विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था। शत्रुओं ने उसे घायल कर दिया था और पिता की हत्या कर दी थी। ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण किया। एक दिन ब्राह्मणी दोनों बच्चों को ऋषि शाण्डिल्य के आश्रम में ले आई। ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी। ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी प्रदोष व्रत करना शुरू किया।एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया, लेकिन राजकुमार धर्मगुप्त अंशुमती नाम की गंधर्व कन्या पर मोहित हो गया। कन्या ने राजकुमार केा अपने पिता से मिलवाया। उसका पिता राजकुमार को पहचान गया। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।
इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुन: आधिपत्य प्राप्त किया। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था। कहा जाता है कि जो भी इस कथा को पढ़ता है, उसके घर में कभी भी दरिद्रता का वास नही होता है।